भाजपा के लिए खलनायक देवभूमि के जननायक हरीश चन्द्र सिंह रावत

भाजपा के लिए खलनायक देवभूमि के जननायक हरीश चन्द्र सिंह रावत 

पहले हम आपको देवभूमि के जननायक का परिचय और राजनैतिक सफर से रूबरू करवाते है। "हरीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे कद्दावर व मंझे हुए राजनेताओं में शामिल रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में ही उन्होंने सबसे कम उम्र में ब्लाक प्रमुख बनने का रिकार्ड बनाया।
हालांकि इसी कारण उन्हें भिकियासेंण के ब्लाक प्रमुख के पद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर हटना पड़ा था। 1980 में अपने पहले संसदीय चुनाव में भाजपा के त्रिमूर्तियों में शुमार व तब भारतीय लोक दल से सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी को पटखनी देकर हमेशा के लिए संसदीय क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वहीं 1989 के लोस चुनावों में उन्होंने उक्रांद के कद्दावर नेता व वर्तमान केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी और भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को हराया। इस चुनाव में उन्हें 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, जबकि कोश्यारी रावत से कहीं पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे।
27 अप्रैल 1948 को प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के ग्राम मोहनरी पोस्ट चौनलिया में स्वर्गीय राजेंद्र सिंह रावत व देवकी देवी के घर जन्मे रावत की राजनीति यात्रा एल॰एल॰बी॰ की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्व विद्यालय जाने से हुई। यहां वह रानीखेत के कांग्रेस विधायक व यूपी सरकार में कद्दावर मंत्री गोविंद सिंह मेहरा और युवा कांग्रेस की अगुवाई कर रहे संजय गांधी के संपर्क में आए। मेहरा की पुत्री रेणुका से उन्होंने दूसरा विवाह किया, और संजय गांधी के निकटस्थ के रूप में उन्हें 1980 के लोक सभा चुनावों में अल्मोड़ा संसदीय सीट से टिकट मिल गया।
इस चुनाव में उन्होंने गांव से निकले आम युवक की छवि के साथ तत्कालीन भारतीय लोक दल के सांसद प्रो. मुरली मनोहर जोशी के विरुद्ध 50 हजार से अधिक मतों से जीत दर्ज की। जोशी को 49,848 और रावत को 1,08,503 वोट मिले। आगे 1984 में भी उन्होंने जोशी को हराकर अल्मोड़ा सीट छोड़ने पर ही विवश कर दिया। 1989 के चुनावों में उक्रांद के कद्दावर नेता काशी सिंह ऐरी निर्दलीय और भगत सिंह कोश्यारी भाजपा के टिकट पर उनके सामने थे। यह चुनाव भी रावत करीब 11 हजार वोटों से जीते। इन्हें 1,49,703 ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, और यही कोश्यारी रावत से कहीं पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे।
आगे रावत की छवि अपने संसदीय क्षेत्र में एक ब्राह्मण विरोधी छत्रिय नेता की बनती चली गई, जिसका नुकसान उन्हें 1990 के दशक में देखने को मिली। रामलहर में उन्हें सबसे पहले भाजपा के नए चेहरे जीवन शर्मा ने जो करीब 29 हजार वोटों से पटखनी दी, उसे बाद में केंद्रीय मंत्री बने भाजपा नेता बची सिंह रावत ने 1996, 1998 और 1999 में हैट-ट्रिक बनाते हुए जारी रखा। रावत-रावत की इस जंग में आखिरी कील बची सिंह द्वारा 2004 में हरीश की पत्नी रेणुका रावत को करीब 10 हजार मतों के अंतर से हराकर ठोंकी गई, जिसके बाद 2009 के चुनावों में अल्मोड़ा का रण छोड़ हरिद्वार जाना पड़ा।
हरिद्वार रावत के लिए जीत के साथ एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में उनका राजनीतिक पुर्नजन्म हुआ। उन्हें केंद्र सरकार में श्रम राज्यमंत्री बनाया गया। आगे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ता चला गया, और उन्हें वर्ष 2011 में कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के राज्य मंत्री के साथ साथ ससंदीय कार्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया, वह केंद्रीय जल संसाधन मंत्री के पद पर भी रहे हैं।
उत्तराखंड राज्य बनने के दौरान रावत की छवि राज्य आंदोलन के विरोधी के रूप में रही। इस कारण उन्हें 1980 के लोस चुनावों के लिए अल्मोड़ा में अपना नामांकन भी चुपचाप कराना पड़ा था। आगे वह दिल्ली में गठित उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक बन गए, और उत्तराखंड को राज्य के बजाय केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग के साथ उन्होंने एक तरह से राज्य आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी।उत्तराखंड में वर्ष 2002 में कांग्रेस को सत्ता दिलाने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही थी, लेकिन वरिष्ठ नेता पं. नारायण दत्त तिवारी को उनकी जगह मुख्यमंत्री बना दिया गया। यही कहानी 2012 में भी दोहराई गई। विधायकों के करीब एक माह तक उनके पक्ष में दिल्ली में लामबंद होने के बावजूद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया। ऐसे में तिवारी और बहुगुणा दोनों के शासनकाल में वह विपक्षी नेता जैसी भूमिका में रहे।"

काँग्रेस हाईकमान द्वारा विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री से हटाने के बाद हरीश रावत की ताजपोशी से पूरे उत्तराखंड  में जश्न का माहोल बना तो इसका कारण  उनका ऐसा जनप्रिय नेता होना है जिसे  लोग पहाड़ के  जनसरोकारों से  जुड़ाव रखने वाले नेता के तौर पर देखते रहे  हैं  । खांटी कांग्रेसी नेता के तौर पर हरीश रावत की  यही  पहचान  उन्हें अन्य नेताओ से अलग बनाती  है  लेकिन रावत के सामने बड़ी चुनौतियों का पहाड़  सामने खड़ा है  जिससे पार  चुनौती इस  चुनावी बरस  में है क्युकि इस दौर में कांग्रेस के सितारे  गर्दिश  में  हैं  और वह लगातार फिसलन  की  राह पर है । लेकिन  लम्बी रस्साकस्सी  के बाद हरीश रावत उत्तराखण्ड के आठवें  मुख्यमंत्री  तो बन ही गए हैं ।
जमीनी राजनीति से निकले हरीश रावत  ऐसे खांटी राजनेता हैं जिनका उत्तराखण्ड के हर  इलाके  में व्यापक जनाधार है। अतीत  में  भले  ही रावत दो बार सी एम  की कुर्सी पाने से चूक गये हों लेकिन  इस  बार अपनी बिछायी  बिसात में उन्होंने  विरोधियों  चारो खाने चित  कर दिया । विजय बहुगुणा ने हरीश रावत की राह रोकने के लिए  रेड कार्पेट का हर दाव चला लेकिन उनको अभयदान  नहीं  मिल  सका।  
हालाँकि दस  जनपथ  में  रीता  बहुगुणा जोशी  को  साथ लेकर बहुगुणा  ने  अपनी कुर्सी  सलामत रखने  की हर   तिकड़म की   लेकिन कोशिशें  रंग  नहीं ला  सकी ।  बताया  जाता है दस जनपथ में अहमद  पटेल और  राज्य की  प्रभारी अम्बिका सोनी केदारनाथ में जल प्रलय के बाद से ही बहुगुणा की कार्यशैली  से  बहुत  नाराज चल  रही थी लेकिन उनको नहीं हटाया जा सका । बीते बरस आम  आदमी  पार्टी की सफलता  के  बाद पहली बार कांग्रेस और भाजपा पार्टी की  पारम्परिक  राजनीति पर ग्रहण  लग  गया जिसकी शिकन राहुल गांधी  के चेहरे पर  विधान सभा  चुनाव  आने  के  चंद घंटे  बाद देखने  को   मिली  जब  राहुल  गांधी ने कैमरो के सामने आकर कहा हम  आम आदमी पार्टी से सीखेंगे ।  इसके बाद  तो उन्होंने  कांग्रेस को नए सिरे से मथने का मन  बना  लिया  जिसके बाद से ही कांग्रेस में "कामराज "प्लान की आहट  सुनायी देने  लगी थी  जिसकी हिट लिस्ट में विजय बहुगुणा थे  ।                        
अपनी कुर्सी बचाने के लिए  विजय बहुगुणा ने  सतपाल महाराज का  ब्रह्मास्त्र  दस जनपथ में  इस बार आखरी समय तक  चला जिसमे बाइस विधायको के  हस्ताक्षर  को आधार  बनाकर  हरीश रावत का रथ रोकने की हर सम्भव कोशिश की  गई लेकिन सफलता नहीं मिल पायी ।  इस्तीफे  के  दिन  राजभवन  में जाने से पहले बहुगुणा 22  विधायको में से किसी को वजीर बनाने की तिकड़म  महाराज के आसरे  करते  रहे लेकिन सोनिया गांधी के  आगे  उनकी  भी  नहीं चल पायी । कांग्रेस में  जनार्दन द्विवेदी ,  आनंद शर्मा और  जयराम रमेश कांग्रेस शासित राज्यो में ब्राह्मण मुख्यमंत्री का  चमकता चेहरा  बताकर  बहुगुणा को  ना  हटाये  जाने  की  दुहाई  दे रहे थे लेकिन राहुल गांधी द्वारा उत्तराखंड में  कराये  गए एक  गुप्त सर्वे में  जब यह खुलासा हुआ कि उत्तराखंड में  विजय बहुगुणा के रहने पर  कांग्रेस का पांच लोक सभा सीटों  पर सूपड़ा  साफ़  हो सकता है तो ऐसे  में बहुगुणा के विदाई की  पटकथा  दस जनपथ में लिखी जाने लगी ।
कम उम्र में ब्लाक प्रमुख और लगातार लोकसभा में हैट्रिक लगाने के बाद  अस्सी के दशक में  पहले  चुनाव में  हरीश रावत ने डॉ मुरली  जोशी सरीखे कद्दावर  को हराकर धमाकेदार  इंट्री अविभाजित उत्तर  में की । संजय  ब्रिगेड के सिपहसालार और समर्पित सिपाही  बन हरीश ने इसके बाद इतिहास उस  समय रचा  जब डॉ मुरली मनोहर को 1984 में उनके हाथो फिर  पराजित होना  पड़ा।  इसके बाद रावत ने  भगत सिंह कोश्यारी और काशी  सिंह  ऐरी जैसे   दिग्गजों  की नींद  उड़ा डाली जब उनको भी रावत के हाथो  पटखनी  मिली ।  नब्बे के दशक  की रामलहर में   हरीश रावत का सियासी कैरियर पूरी तरह से थम गया । रामलहर में उन्हें राजनीती के नए  नवेले  खिलाडी जीवन शर्मा के हाथ हार खाने को मजबूर होना पड़ा तो 1996 , 19 98 ,1999 में पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री बची सिंह रावत के सामने  हार  गए  ।
इसके  बाद उनकी पत्नी  रेणुका  रावत भी  बची सिंह  रावत  के सामने हार गयी । 2009 में हरीश ने हरिद्वार से  भाग्य आजमाया और हरिद्वार ने  उनका  राजनीतिक  पुनर्वास  किया  जब 15  लोक सभा में वह  श्रम राज्य मंत्री बने  । 2011 में  कृषि  राज्य मंत्री , संसदीय कार्यमंत्री और फिर  जल संसाधन  मंत्री  ने दिल्ली में उनकी राजनीतिक उड़ान को  नई  दिशा दी। राज्य बनने के बाद 2002 में कांग्रेस को राज्य में सत्ता दिलाने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही, लेकिन नारायण दत्त तिवारी को उनकी जगह मुख्यमंत्री बना दिया गया था ।तिवारी को जहाँ  ब्राह्मण समर्थको   के चेहरे के  रूप में पहचाना  गया वहीँ हरीश रावत को ठाकुरों के पोस्टर बॉय के रूप में  और शायद यही वजह  रहीं हरीश  रावत  को  भी  अतीत  में पहाड़ की ब्राह्मण  ठाकुर   सियासत  का  सबसे  बड़ा  नुकसान उठाना  पड़ा । 
यही कहानी 2012 में भी दोहराई गई। बड़ी  संख्या  में विधायकों के  उनके पक्ष में दिल्ली में लामबंद होने के बावजूद ब्राह्मण चेहरे   विजय बहुगुणा  को मुख्यमंत्री बना दिया गया। ऐसे माहौल  में हरीश को उत्तराखंड से दूर रहने  नसीहतें  मिलती  रही लेकिन इसके बाद  भी वह उत्तराखंड  के हको की  लड़ाई न केवल  लड़ते रहे बल्कि बहुगुणा के खिलाफ 'लेटर वार' शुरू कर उन्होंने उत्तराखंड में नयी बहस शुरू कर डाली ।
  विजय बहुगुणा के  सत्ता संभालने के साथ ही लूट-खसोट का राज  उत्तराखंड  में शुरू  हो  गया । सितारगंज में  पानी  की तरह  पैसा बहाने के बाद टिहरी  उपचुनाव में साकेत  बहुगुणा  की चुनावी  हार  के  बाद विजय  बहुगुणा की आलोचना शुरू  हो गयी। अपने शपथ ग्रहण समारोह में जो ख्वाब प्रदेशवासियों को उन्होंने  दिखाए थे वह राज्य में  हवा हवाई ही साबित हुए। प्रदेश में  अफसरशाही   जहाँ पूरी तरह से बेलगाम रही वहीँ  कभी न्यायाधीश रहे बहुगुणा इससे जूझ पाने में विफल साबित हुए।
बहुगुणा का ज्यादातर समय दिल्ली की मैराथन दौड़ में ही जहाँ  बीता , वहीँ कांग्रेस के विधायक भी अंदरखाने बहुगुणा को राज्य में मुख्यमन्त्री के रूप में नहीं पचा पा रहे थे  | राज्य में विकास कार्य  इस कलह से सीधे  तौर पर  प्रभावित हुए  और शायद यही कारण रहा  राजनीती के गूढ़ रहस्यो से अनजान बहुगुणा को पहली बार सियासी अखाड़े में अपनी पार्टी के लोगो से ही  तगड़ी चुनौती मिली  जहाँ अपनी कुर्सी बचाने के लिए वह दस जनपथ में अपनी बराबर हाजिरी लगाते हुए देखे गए । 
आज  से तकरीबन चार साल पहले जब  विजय बहुगुणा ने उत्तराखंड के मुख्यमन्त्री का कांटो रुपी  ताज पहना था तो लोगो को उम्मीद थी कि वह पर्वत पुत्र माने जाने वाले अपने पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा सरीखे राजनीती के दिग्गज नेता की तर्ज पर अपनी अलग छाप छोड़ेंगे लेकिन बहुगुणा के शासन से उत्तराखंड के आम जनमानस का धीरे धीरे मोहभंग होता गया ।  टिहरी की हार का बड़ा कारण विजय बहुगुणा का अहंकार भी था  जो हरीश रावत सरीखे खांटी कांगेसी नेता और उनके समर्थको की उपेक्षा करने में लगे  थे और अपने को सुपर सी ऍम समझने की भारी  भूल कर बैठे जबकि बहुगुणा का उत्तराखंड के जनसरोकारो से सीधा कोई वास्ता भी नहीं रहा  |
वह तो अपने पिता हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम ,परिवारवाद  और कॉरपोरेट के आसरे उत्तराखंड के सी ऍम की कुर्सी पा गए और सितारगंज में धन बल के जरिये अपना चुनाव जीत भी गए | जबकि बहुगुणा के जनसरोकारो का READ  MORE: www.khojinarad.in
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